संसद हमले के जवाब में सरहद पर थी सेना… फिर भारत ने अपने कदम पीछे क्यों खींच लिए!
13 दिसंबर 2001 का संसद हमला भारत के लोकतंत्र और सुरक्षा पर सीधा हमला था. आतंकियों ने संसद परिसर में घुसकर गोलियां चलाईं, जिसमें सुरक्षाकर्मी शहीद हुए. इस हमले के बाद भारत ने ऑपरेशन पराक्रम शुरू किया और सीमा पर बड़े पैमाने पर सैन्य तैनाती हुई लेकिन ऑपरेशन बिना युद्ध के समाप्त हुआ. यह घटना भारत-पाक संबंधों और राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में निर्णायक मोड़ साबित हुई.
13 दिसंबर 2001 की सुबह भारत की संसद पर हुआ दिल दहला देने वाला आतंकवादी हमला आज भी करोड़ों देशवासियों की यादों में जिंदा है. लोकतंत्र के इस सर्वोच्च मंदिर पर हुए हमले ने पूरे देश को हिला दिया था, लेकिन हमारे वीर सुरक्षा कर्मियों ने अपनी जान की बाजी लगाकर संसद की गरिमा को अक्षुण्ण रखा. यह वह काला दिन था जिसने न सिर्फ भारत की सुरक्षा व्यवस्था को चुनौती दी, बल्कि हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान पर गहरा घाव भी छोड़ा.
पांच हथियारबंद आतंकी बड़े साजो-सामान के साथ संसद परिसर में घुस आए और अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दीं. इस मुठभेड़ में नौ बहादुर लोग शहीद हुए, जिनमें सुरक्षा बलों के जवान और संसद कर्मचारी शामिल थे. हालांकि सभी हमलावर मौके पर ढेर कर दिए गए, लेकिन इस वारदात ने भारत को गुस्से और हैरानी में झकझोर दिया. सरकार ने तुरंत ही लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद को जिम्मेदार ठहराया और पाकिस्तान पर सीधा आरोप लगाया. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली NDA सरकार ने 1971 से भी बड़ी सैन्य कार्रवाई की तैयारी शुरू कर दी थी.
भारत ने ऑपरेशन पराक्रम के तहत सीमा पर 5 से 8 लाख सैनिकों की विशाल तैनाती कर दुनिया को चौंका दिया. जवाब में पाकिस्तान ने भी लगभग 3 लाख सैनिक मोर्चे पर भेज दिए. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पहली बार इतनी बड़ी सैन्य तैनाती आमने-सामने खड़ी थी. करीब नौ महीनों तक भारतीय सेना सीमा पर डटी रही, लेकिन कूटनीतिक दबाव और पाकिस्तान द्वारा आतंकी संगठनों पर कार्रवाई के वादे के बाद सेना को वापस बुलाया गया. फिर भी भारत ने कूटनीतिक स्तर पर बड़ी बढ़त हासिल की.
हमले की पृष्ठभूमि और तत्काल प्रतिक्रियाएं
यह हमला किसी एक दिन की साजिश नहीं था, बल्कि कश्मीर विवाद और भारत-पाकिस्तान के तनावपूर्ण रिश्तों की लंबी कड़ी का हिस्सा था. कारगिल युद्ध के दो साल बाद भी रिश्ते पटरी पर नहीं आए थे, ऊपर से कंधार विमान अपहरण ने हालात और बिगाड़ दिए थे. ऐसे में 13 दिसंबर को फर्जी पहचान और वाहनों के सहारे आतंकी संसद में दाखिल हुए और अंधाधुंध गोलियां चलाईं. हमलावरों का निशाना उस समय उपराष्ट्रपति कृष्णकांत का काफिला भी था, लेकिन किसी बड़े नेता को नुकसान नहीं पहुंचा.
हमले के तुरंत बाद सरकार का रुख बेहद सख्त हो गया. गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने संसद में कहा कि यह पूरी तरह पाकिस्तान की सोची-समझी साजिश है. भारत ने मांग की कि पाकिस्तान LeT और JeM के सरगनाओं को गिरफ्तार करे, उनके दफ्तर बंद करे और उनकी संपत्तियां जब्त करे. जब इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली, तो भारत ने 21 दिसंबर को अपना उच्चायुक्त वापस बुला लिया. जनवरी 2002 आते-आते आठ लाख भारतीय सैनिक LOC और सीमा पर तैनात हो चुके थे, और ऑपरेशन पराक्रम पूरे जोर पर था.
लेकिन बड़ा सवाल यह था—क्या यह सचमुच युद्ध का संकेत था? कैबिनेट कमिटी ऑन सिक्योरिटी ने कई अहम बैठकें कीं, जहां सीमित युद्ध और नियंत्रण रेखा पार करने पर चर्चा हुई. NSA ब्रजेश मिश्रा ने कहा कि CCS आतंकवाद पर कड़ा एक्शन चाहती थी और जरूरत पड़ने पर सीमा पार कार्रवाई की अनुमति देने को तैयार थी. दूसरी ओर, विदेश मंत्री जसवंत सिंह संयम पर जोर देते रहे और युद्ध की संभावना को कम बताते रहे.
सरकार के मन में क्या चल रहा था?
जनवरी 2002 के शुरुआती दिनों में भारतीय सेनाएं पूरी तैयारी के साथ पाकिस्तान सीमा पर खड़ी थीं. युद्ध-पूर्व की तैयारियां तेज रफ्तार से चल रही थीं और समय भी रणनीतिक रूप से बेहद अनुकूल माना जा रहा था. ऑपरेशन पराक्रम के दौरान भारत को सैन्य बढ़त भी हासिल थी, जबकि 9/11 के बाद अमेरिका की नई रणनीति ने पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय दबाव में डाल रखा था.
तीन दशकों में यह पहली बार था जब भारतीय सेना इतनी व्यापक स्तर पर तैयार खड़ी थी और अब सिर्फ राजनीतिक आदेश की प्रतीक्षा थी. कई सुरक्षा विशेषज्ञ इसे ऐसा सुनहरा अवसर बताते हैं जब भारत पाकिस्तान को आतंकवाद पर निर्णायक कार्रवाई करने के लिए मजबूर कर सकता था. लेफ्टिनेंट जनरल एच.एस. पनाग (सेवानिवृत्त) के अनुसार संसद हमले के बाद हुई CCS की बैठक में तीनों सेनाध्यक्ष मौजूद थे, और यहीं से इतिहास ने करवट लेनी शुरू की.